SAHARSA NEWS अजय कुमार/सहरसा : दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक व संचालक सर्व श्री आशुतोष महाराज के शिष्य स्वामी कुन्दनानन्द ने कहा की कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को मनाया जाने वाला लोक आस्था का महापर्व बिहार की सामाजिक, सांस्कृतिक सोहार्द का प्रतीक है। यह एक पर्व ही नहीं बल्कि जीवनशैली है। संस्कृति व संस्कार का पुनर्जागरण है। प्रकृति के साथ संबंध स्थापित करती है तथा पर्यावरण संरक्षण तथा सामाजिक समरसता को बल प्रदान करती है।छठ व्रत का अध्यात्मिक महत्व प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, परिवार व समाज में सामूहिकता को बढ़ाना है। छठ पूजा वास्तव में सूर्य की उपासना है। हमारे सनातन धर्म में सूर्य को संसार की आत्मा कहा है सूर्यऽ आत्मा जगतस्तस्थुषश्च । इन्हें जीवन का स्रोत और सभी प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा का प्रदाता कहा गया है।सूर्य की किरणों में रोगों के समन की शक्ति है तथा मानसिक व शारीरिक स्वस्थ को बढ़ाने में सहायक होती है। सूर्य उपासना से कुष्ट रोग का समन हो जाने तथा सोवरण काया हो जाने की बात घर घर में प्रचलित है। सूर्य देव को नवग्रहों का राजा कहा गया है और पंचदेव में सूर्य देव का विशेष स्थान होता है।सूर्य देव को तेज और सकारात्मक शक्ति का देवता भी कहा जाता है।आदित्यो ह वै प्राणों ऋषि पिप्पलाद कहते है सूर्य ही जगत का प्राण है। अतः छठ पूजा में व्रती सूर्य का साथ उनके पत्नी प्रत्यूषा संध्या की देवी तथा उषा भोर की देवी की पूजा की जाती है। सूर्य उपासना के पीछे एक कारण यह भी है की भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि, फसल, वर्षा, और मौसम में परिवर्तन सूर्य की किरणों और उनके प्रभाव पर निर्भर करते हैं।यह पर्व न केवल सूर्य की आराधना का माध्यम है, बल्कि जल संरक्षण के प्रति भी जागरूकता फैलाने का एक सांस्कृतिक तरीका है।यह पूजा प्रकृति, विशेष रूप से जल और सूर्य के बीच एक गहरे संबंध को प्रकट करती है।इस पर्व के माध्यम से नदियों और तालाबों की पवित्रता और उनके संरक्षण की आवश्यकता को समझाया जाता है। जो कि जल स्रोतों के प्रति आदर और सम्मान दिखाने का एक प्रतीक है। जल को जीवनदायिनी कहा गया है जल की प्रार्थना करते हुए ऋषि कहते है की हे माता ! जैसे माताएं सर्वाधिक कल्याणदायी रस से बच्चों को पोषती है वैसे ही आप हम सब को सर्वाधिक कल्याणदायी रस पोषण हेतु सेवन कराने की कृपा करें।नई पीढ़ी को जल संरक्षण की महत्ता समझाने उसके संवर्धन और संरक्षण के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी का एहसास कराने का एक साधन है।
जब बच्चे और युवा इस पूजा में हिस्सा लेते हैं, तो वे जल स्रोतों और जल संरक्षण की आवश्यकता के बारे में जागरूक होते हैं। जल स्रोतों के प्रति आदर और सम्मान दिखाने का एक प्रतीक है।धार्मिक ग्रंथों के अनुसार विवाह होने में अगर देर हो रही हो तो रोज सूर्य को जल देना शुरू कर देना चाहिए।इससे लड़के-लड़की के लिए अच्छे रिश्ते आते हैं।सूर्य को नित्य जल देने से मान-सम्मान की वृद्धि होती है।सूर्य को अर्घ्य देने वाले व्यक्ति का भाग्योदय होता है | रोजाना सूर्य को जल चढ़ाने से शरीर में ऊर्जा बढ़ती है। स्वस्थ्य सौरमंडल में सूर्य को निडर और निर्भीक ग्रह माना गया है। इस आधार पर सूर्य को अर्घ्य देने वाले व्यक्ति को भी ये विशेष गुण व्यक्ति मिलते हैं। सूर्य को प्रतिदिन अर्घ्य देने से व्यक्ति कुंडली में सूर्य की स्थिति भी मजबूत होती है। ज्योतिषविद्या के मुताबिक हर दिन सूर्य को अर्घ्य देने से व्यक्ति की कुंडली में यदि शनि की बुरी दृष्टि हो तो उसका प्रभाव भी कम होता है। जो व्यक्ति विशेष रूप से रोजाना ऐसा करता है तो इससे उसके जीवन पर पड़ने वाले शनि के हानिकारक प्रभाव भी कम हो जाते हैं।चंद्रमा में जल का तत्व निहित होता है और जब हम सूर्य को जल देते हैं तो न सिर्फ सूर्य बल्कि चंद्रमा से भी बनने वाले शुभ योग स्वयं ही व्यक्ति की कुंडली में विशेष रूप से सक्रिय हो जाते हैं। सूर्य को जल चढ़ाने के पीछे न सिर्फ ज्योतिषीय कारण हैं बल्कि वैज्ञानिक कारण भी हैं जैसे, सूर्य को जल का अर्घ्य देते समय जल की प्रत्येक बूंद एक माध्यम की तरह काम करती है और वातावरण में मौजूद विभिन्न जीवाणुओं से सुरक्षा करती हैं । सूर्य को प्रतिदिन अर्घ्य देने से हमारे आंखों की रोशनी भी तेज होती है।नियमित तौर पर से सूर्य को जल का अर्घ्य देने से हमारे शरीर की हड्डियां भी मजबूत होती हैं क्योंकि सुबह की सूर्य की किरणें व्यक्ति को सेहतमंद बनाने में भी मददगार होती हैं। चिकित्सीय आधार पर सूरज की किरणें हमारे शरीर को रखने के लिए ऊर्जा प्रदान करती हैं। सतयुग में राजा प्रियव्रत ने सूर्योपासना से मरे पुत्र का पुनः जीवन पाया।द्वापर में जामवंती के पुत्र साम्ब ने सूर्य की उपासना कर कुष्ट रोग से निजाद पाया। वनवास के दौरान पांडवों ने सूर्य की स्तुति कर अक्षय पात्र पाया था।त्रेता में भगवान राम ने आदित्यहृदयस्त्रोत का पाठ कर रावण का वध कर पाए। छठ व्रत की परंपरा सतयुग से आज तक अनवरत चली आ रही है।