नवंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में गरमागरम बहस छिड़ी। हाल ही में, न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने अपनी टिप्पणी से इस विवाद को और भड़का दिया है। बी. वी. नागरत्ना नोटबंदी मामले की सुनवाई कर रही पीठ के सदस्य थीं और उनके विचार बाकी न्यायमूर्तियों से अलग थे।
अपने हालिया भाषण में, बी. वी. नागरत्ना ने कहा कि नोटबंदी का अंतिम परिणाम उसके मूल उद्देश्य से विपरीत रहा। उन्होंने उल्लेख किया कि डिमॉनेटाइज़ेशन के बाद 98% मुद्रा रिज़र्व बैंक में वापस आ गई, जिससे ब्लैक मनी उन्मूलन का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। इसके विपरीत, यह नकदी अवैध धन को वैध बनाने का एक माध्यम बन गया।
बी. वी. नागरत्ना ने फैसले की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाए। उनका मानना है कि इतना बड़ा फैसला केवल एग्जिक्यूटिव नोटिफिकेशन से नहीं लिया जा सकता था। आवश्यक कानूनी पद्धति का पालन नहीं किया गया, जैसे ऑर्डिनेंस लाना या संसद में विधेयक पेश करना।
आम जनता पर नोटबंदी के प्रभाव को भी बी. वी. नागरत्ना ने रेखांकित किया। 86% मुद्रा 500 और 1000 के नोटों की थी, जिसे अचानक बंद कर दिया गया। गरीब और दिहाड़ी मजदूरों को अपने रोज़मर्रा के लेनदेन के लिए भी संघर्ष करना पड़ा।
हालांकि बी. वी. नागरत्ना ने मूल फैसले में नोटबंदी के इरादों पर संदेह नहीं जताया था, लेकिन उनकी ताज़ा टिप्पणियां इस घटना की कानूनी और आर्थिक समीक्षा को दोबारा खोलती हैं। यह स्पष्ट है कि बी. वी. नागरत्ना जल्दबाज़ी और अनिश्चित क्रियान्वयन से नाराज़ हैं। एक बार फिर, नोटबंदी विवाद ने सरकार की नीति निर्माण प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
बी. वी. नागरत्ना की टिप्पणियां केवल नोटबंदी की सीमाओं को उजागर नहीं करतीं, बल्कि सरकार की नीतियों में पारदर्शिता और उचित प्रक्रियाओं के महत्व पर भी प्रकाश डालती हैं। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में, ऐसे महत्वपूर्ण फैसले को लेने से पहले व्यापक सार्वजनिक परामर्श होना चाहिए।
अचानक एवं एकपक्षीय कार्रवाई का तरीका गलत है। इससे न केवल लोगों को परेशानी होती है, बल्कि इससे लोकतंत्र और संस्थाओं पर भरोसा भी डगमगा जाता है।
समय आ गया है कि हम नोटबंदी के सबक सीखें और भविष्य के लिए एक अधिक पारदर्शी, समावेशी और जिम्मेदार नीति निर्माण प्रणाली को अपनाएं। केवल इस तरह हम ऐसी घटनाओं को टाल सकते हैं जो देश को तनाव और अराजकता की स्थिति में धकेल देती हैं। आखिरकार, किसी भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि वह अपने लोगों की आवाज़ को कितना महत्व देती है।