नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड की कानूनी वैधता पर फैसला सुनाया है। सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पांच सदस्य संविधान पीठ ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर फैसला सुनाया है। राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए सरकार की ओर से लागू की गई इलेक्टोरल बॉन्ड बंद की व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए इलेक्टोरल बॉन्ड पर रोक लगा दी है। फैसला सनाते हुए कोर्ट ने कहा कि लोगों को चुनावी चंदे के स्रोत को जानने का अधिकार है। कोर्ट ने भारतीय स्टेट बैंक यानी एसबीआई को 2019 से ले कर अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी सारी जानकारी तीन हफ़्ते के अंदर चुनाव आयोग को सौंपने को कहा है।
क्या है चुनावी बॉन्ड?
भारत में चुनाव के वक्त बहुत सारा पैसा खर्च होता है। पार्टियों को जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए पैसे की जरूरत होती है। ये पैसा आता है चंदे के जरिए। राजनीतिक दलों को चंदा देने के जरिए को ही चुनाव बॉन्ड कहते है। मोदी सरकार ने 2017 में चुनावी बॉन्ड लाने की घोषणा की थी। अगले ही साल जनवरी 2018 में इसे अधिसूचित कर दिया गया। उस वक्त सरकार ने इसे पॉलिटिकल फंडिंग की दिशा में सुधार बताया और दावा किया कि इससे भ्रष्टाचार से लड़ाई में मदद मिलेगी।
राजनीतिक दल को दान करने का जरिया
चुनावी बॉन्ड एक तरह का वचन पत्र है। इसकी खरीदारी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं पर किसी भी भारतीय नागरिक या कंपनी की ओर से की जा सकती है। यह बॉन्ड नागरिक या कॉरपोरेट कंपनियों की ओर से अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को दान करने का जरिया है।
विवाद की शुरूआत
विवाद की शुरूआत तो 2017 में ही हो गई थी, जब इसकी घोषणा हुई। योजना को 2017 में ही चुनौती दी गई थी, लेकिन सुनवाई 2019 में शुरू हुई। सुप्रीम कोर्ट ने सभी पॉलिटिकल पार्टियों को निर्देश दिया कि वे 30 मई, 2019 तक चुनावी बॉन्ड से जुड़ी सभी जानकारी चुनाव आयोग को दें। हालांकि, कोर्ट ने इस योजना पर रोक नहीं लगाई। फिर साल 2019 के दिसंबर महीने में ही, इसको लेकर दो याचिकाएं दायर की गई। पहली याचिका एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और ग़ैर-लाभकारी संगठन कॉमन कॉज़ ने मिलकर दायर की थी। दूसरी याचिका, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने दायर की थी। याचिकाओं में कहा गया था कि भारत और विदेशी कंपनियों के जरिए मिलने वाला चंदा गुमनाम फंडिंग है। इससे बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बनाया जा रहा है। यह योजना नागरिकों के जानने के अधिकार का उल्लंघन करती है।